अपनी वस्तु अपनी नहीं है – हिंदी कहानी
राजा रन्तिदेव बड़े दानी थे। उनके द्वार पर आया हुआ कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता था। एक बार अकाल पड़ा। रन्तिदेव ने जी-भर कर अन्न-धन लुटाया। धीरे-धीरे करके राज्य का कोष खाली होने लगा। अत्र चुक गया। धन खत्म हो गया। अब क्या दें याचकों को? (अपनी वस्तु अपनी नहीं है)
दुःखी मन से अपनी रानी और पुत्र के साथ वन में चले गये. राज्य छोड़ कर वन में न जल, न अन्न। चालीस दिनों तक भूखे रहे—कभी पत्ते खा लिये, कभी घास खा ली। एक दिन एक अपरिचित व्यक्ति आया। वह उन्हें भोजन और जल दे गया।
रानी और पुत्र सहित रन्तिदेव भोजन करने बैठे ही थे कि दो बालक आ गए, बाले-“भिक्षा चाहिए।” उन्होंने अपने और रानी के हिस्से का भोजन उन्हें दे दिया। पुत्र अपने हिस्से का भोजन करने ही वाला था। दो भिखारी और आ गये और भोजन माँगने लगे। रन्तिदेव ने उन्हें पुत्र के हिस्से का भोजन दे दिया।
अब जल बचा। रन्तिदेव ने सोचा–दूसरों की भूख मिटी, अच्छा ही हुआ। हम लोग पानी पी कर रह जायेंगे। तभी एक प्यासा कुत्ता आ गया। रन्तिदेव ने उसे सारा जल पिला दिया। राजा, रानी तथा पुत्र-तीनों भूखे-प्यासे रह गये। किसी ने उफ तक नहीं की।
तभी आकाशवाणी हुई, तुम्हारी परीक्षा पूरी हुई। माँगो कुछ, रन्तिदेव ने कहा- “भगवान, मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। अगर कुछ देना चाहें, तो इन भूखों-प्यासों के लिए दे दें।”
बच्चो, जो वस्तुएँ तुम्हारे पास हैं, उन पर पहला अधिकार उन लोगों का है, जिनके पास वे वस्तुएँ नहीं है। तुम दूसरों की आवश्यकताएँ। पूरी करोगे, तो तुम्हारी आवश्यकताएँ अपने-आप पूरी हो जायेंगी-भगवान् और अन्य प्राणी तुम्हारी आवश्यकताएँ पूरी करेंगे।
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