सच्चा इनसान – Bacche aur Ped ki Kahani
एक था बाग़-फल-फूलों से सजा हुआ बाग़। उस बाग़ में बच्चे आते, फूलों से प्यार करते, तितलियों से खेलते, कूदते-भागते। (Bacche aur Ped ki Kahani)
एक समय की बात है। बाग़ के मालिक ने सोचा — मैं अकेले ही इस बाग़ का सुख भोगूंगा। उसने बाग़ के चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी करवा दी। फाटक पर एक तख्ती लगा दी और उस पर लिख दिया—’अन्दर आना मना है।’
फिर क्या हआ? वसन्त आया, गरमी आयी, जाड़ा आया। बाग़ में न फूल खिले, न तितलियाँ नाचीं, न कोयल बोली, न चिड़ियाँ चहचहाई और न पेड़ फलों से लदे-सब-कुछ उजाड़-उजाड़।
बाग़ का मालिक सोचा करता कि यह क्या हो गया, कैसे हो गया? अब मैं कौन-सा सुख भोगूं? एक दोपहर को सोते सोते वह जाग पड़ा। उसे कोयल की कुहू कुहू सुनायी पड़ी। थोड़ी देर में चिड़ियाँ भी चहचहाने लगीं।
उसने आँखें फाड़ कर देखा-सामने लगे आम के पेड़ की डालें, जो कल तक रूखी-सूखी थीं, फलों से लद गयी थीं; फूलों के मुरझाये पौधे जो कल तक रो रहे थे, आज उन पर फूल खिले हुए थे और हँस रहे थे।
वह उठ बैठा। पूरा बाग़ फल-फूलों की खुसबू से महक रहा था। तभी उसे सुनायी पड़ी बच्चों की किलकारियाँ, उनकी धमा-चौकड़ी। वह उठ कर बाग की दीवार की तरफ गया। देखा, कुछ बच्चे दीवार के ऊपर से कूद कर अन्दर घुस आये थे।
मालिक ने बच्चों को अपने पास बुलाया। उन्हें खूब प्यार किया। अपने हाथों से फल तोड़-तोड़ कर उन्हें खिलाये और बोला—“खूब खेलो-कूदो। तुम्हारे ही कारण से यह रोता हुआ बाग़ आज हँसा है। इसकी सारी खुशी तुम्ही वापस लाये हो।” ।
हाँ सचमुच, उन बच्चों के आने से ही बाग़ की रौनक़ वापस लौटी थी।
यह कहानी बताती है कि सुख-सुविधा तुम अकेले ही भोगोगे, तो ज़िन्दगी वैसी ही उजड़ जायेगी, वैसी ही उदास हो जायेगी, जैसा वह बाग़ हो गया था। यदि तुम अपने सुख में दूसरों को भी साझेदार बनाओगे, तो तुम्हारी ज़िन्दगी उतनी ही सुगन्धित और सुन्दर बन जायेगी, जितना वह बाग़ बच्चों के घुस आने के बाद हो गया था।
बच्चो, बाग़ के मालिक की तरह कभी नहीं सोचना–सुख मैं स्वयं भोगूँगा। यह स्वार्थ की निशानी है। जो अपने सुख में दूसरों को भागीदार बनाता है, वही निस्स्वार्थी है, वही सच्चा इनसान है।