तुम, पुरुषार्थ और भगवान – Bhagwan Krishan ki Kahani
एक बार भगवान कृष्ण भोजन कर रहे थे। रुक्मिणी पंखा झल रही थीं। एकाएक भोजन की थाली छोड़ कर दौड़ पड़े भगवान्। द्वार तक आये। फिर रुक गये। कुछ बुझे मन से. उदास-उदास से लौट आये और भोजन करने लगे। (Bhagwan Krishan ki Kahani)
रुक्मिणी ने पूछा- “भोजन छोड़ कर कहाँ के लिए चल दिये थे आप? फिर, द्वार से लौट क्यों आये?”
भगवान बोले- “हाँ, बात कुछ ऐसी ही थी। मेरा एक भक्त राजमहल के पास से गुजर रहा था। लोग उसे पत्थर मार रहे थे। लहू-लुहान हो रहा था वह और मुझे पुकार रहा था। मैं दौड़ा था उसकी रक्षा करने के लिए: परन्तु द्वार तक पहुँचते-पहुँचते मझे पता चला कि उसने भी पत्थर उठा लिया है बदला लेने के लिए।
बस, मैं लौट आया। अब मेरी क्या जरूरत रह गयी है उसे! जब तक वह खाली हाथ था, जब तक वह पुकार रहा था, में उसे सहायता देने के लिए व्याकुल हो रहा था; लेकिन अब वह बेसहारा नहीं है। मेरा सहारा छोड कर अब उसने पत्थर का सहारा पकड़ लिया है।”
क्या मतलब है इस कहानी का? जब भगवान के भक्त ने हाथ में पत्थर उठा लिया था, तब वह भगवान को भूल गया था। वह तो पत्थर पर ही भरोसा कर रहा था। तुम ऐसा कभी मत करना। तुम प्रयास तो करना, पुरुषार्थ तो करना; परन्तु अपने सारे साधनों को भगवान के दिये हुए साधन मान कर उपयोग करना।
भगवान से सच्चे मन से कहना – “कर मैं रहा हूँ, सँभालना आपको है।” तब तुम्हारे साधन भगवान के सैकड़ों-हजारों हाथ बन जायेंगे; तब तुम्हारे छोटे-छोटे सहारे भगवान का सुदर्शनचक्र बन कर तुम्हारी रक्षा करेंगे।
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