कौन बड़ा है? – Gareeb Bacche ki Kahani
उस स्कूल के फाटक के बाहर एक बगीची थी। जब खाने की छुट्टी होती थी, तो विद्यार्थी अपना-अपना खाना ले कर उस बगीची में जाते थे और छोटी-छोटी टोलियों में बैठ कर भोजन करते थे। (Gareeb Bacche ki Kahani)
एक दिन की बात है। इण्टरवल की छुट्टी में जब विद्यार्थी बगीची के थे, तब एक भिखारी बालक वहाँ आया। वह विद्यार्थियों की एक ही पास जा कर खड़ा हो गया। उस टोली में शहर के अमीर लोगों गपशप करते हुए भोजन कर रहे थे।
भिखारी बालक हाथ जोड का बोला- “मुझे भी कुछ मिल जाये।” उनमें से एक विद्यार्थी जिसका नाम महेश था, खाते-खाते मुंह बिचका कर उसे चिढ़ाने लगा। फिर बोला-भाग जा।”
लेकिन वह भिखारी बालक नहीं भागा। लालच-भरी दृष्टि से टिफिन के डिब्बों में भरे भोजन की ओर देखता रहा।
“अरे तू अभी तक गया नहीं। भाग जा, नहीं तो……” महेश ने इस बार पास पड़े हुए पत्थर को उठा कर उसे धमकाया।
डर कर वह बालक कुछ पीछे हट गया और बोला— “मुझे कल से कुछ खाने को नहीं मिला। आधी रोटी मुझे दे दो न!”
अब महेश को गुस्सा आ गया। वह मारने के लिए उठा तो भिखारी बालक भागा। कुछ दूरी पर विद्यार्थियों की एक दूसरी टोली बैठी भोजन कर रही थी। उस टोली के एक विद्यार्थी ने बिना माँगे ही उसे एक रोटी दे दी। देखा-देखी दूसरे विद्यार्थियों ने भी उसे कुछ रोटियाँ दे दी।
बालक ने खुश हो कर रोटियाँ ले ली और दूर जा कर बैठ गया। वह खाना शुरू करने ही वाला था कि तभी एक घटना घटी। एक दूसरा फकीर उसके पास आया और निढाल हो कर गिर पड़ा। रोटियों जहां तहाँ छोड़ कर बालक उसे उठाने की कोशिश करने लगा।
फ़कीर लेटे-लेटे ही बोला-“अब मैं नहीं बनूंगा। कई दिनों से अन्न का एक दाना भी पेट में नहीं पड़ा। मुझे पानी पिला दो, पानी पिला दो।”
तभी घण्टी बजी। विद्यार्थी अपनी-अपनी कक्षाओं की ओर भागे।
बालक ने बगीची में लगे नल से अपनी टूटी-फूटी बाल्टी में पानी भरा और उस फकीर के मुँह में डाला। फिर उसे धीरे-धीरे उठा कर बिठलाया।
‘भूखे हो न बाबा! लो खाओ।” कह कर बालक ने अपनी रोटियाँ उसके सामने रख दी। फकीर बड़े-बड़े कौर तोड़ते हुए रोटियाँ खाने लगा।
भूखा भिखारी बालक-लगभग दश वर्ष का छोटा बालक, जिसे पिछले दिन से कुछ भी खाने को नहीं मिला था, उसके सामने बैठा रहा।
न तो उस फकीर को यह सुधि आयी कि आधी रोटी का टुकड़ा अपने उस भूखे अन्नदाता को भी दे दे और न उस अन्नदाता ने स्वयं ही रोटी का कोई टुकड़ा अपने लिए बचा कर रखा।
फकीर ने रोटियाँ खा ली और तृप्त हो कर लेट गया फिर उसे नींद आ गयी। थोड़ी देर बाद वह भिखारी बालक उठा, नल पर जा कर पानी पिया और एक ओर को चल दिया।
बच्चो, बगीची के फाटक के पास खड़ा-खड़ा मैं यह सब देख रहा था। लपक कर मैं उस बालक के पास पहुँचा और उसका हाथ पकड़ लिया। मैंने उसकी ओर गौर से देखा।
चिथड़ों में लिपटा वह बालक….। मुझे कुछ कहते नहीं बना। सचमुच, वह गुदड़ी में छिपा लाल ही था। मैंने उसे चिपटा लिया। (Gareeb Bacche ki Kahani)
उसके हाथ पर कुछ रुपये रख दिये और कहा- “जाओ बेटे, नुक्कड़ पर जो दुकान है वहाँ खाना खरीद कर खा लेना।” उसके जाने के बाद मैं सोचता रहा कि कौन बड़ा है—अमीर बाप का बेटा महेश जो रोटी का एक टुकड़ा भी उस बालक को नहीं दे पाया या वह भिखारी बालक जिसने स्वयं भूखा रह कर अपनी भिक्षा उस भूखे फकीर को खिला दी?
सत्कर्मों से बड़ाई मिलती है, धन से नहीं। धन इसलिए नही कि उस पर अभिमान किया जाये—धन होता है सत्कर्म करने के तुम बड़े हो कर कितना धन कमाते हो, इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम कितने सत्कर्म करते हो। सत्कर्म करने वाला गरीब अभिमान करने वाले अमीर से बड़ा होता है।
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