महाचाण्डाल – Sadhu ki Kahani
एक साधु नदी में स्नान कर रहे थे। तभी एक चाण्डाल आ कर उनके पास नहाने लगा। साधु ने देखा कि उसके नहाने से उनके ऊपर छींटे पड़ रहे हैं। गुस्से से भरे हुए वह नदी से बाहर निकल आये। किनारे खड़े हो कर चाण्डाल को खरी-खोटी सनाने लगे। (Sadhu ki Kahani)
तब तक चाण्डाल भी नहा कर बाहर निकल आया था। वह उनके पैरों पर गिर पड़ा। लेकिन साधु का गुस्सा शान्त नहीं हुआ। वह उसे पीटने लगे। बिना कुछ कहे चाण्डाल ने मार खा ली। मारने के बाद साधु बड़बड़ाते हुए फिर नदी में घुसे-“अब मुझे फिर स्नान करना पड़ेगा इस चाण्डाल को छूने के कारण।”
चाण्डाल भी नदी में घुस गया और साधु से कछ दर हट कर नहाने लगा। साधु गरज कर बोले-“तू मेरी नकल उतारता है!”
अब चाण्डाल बोला- “नहीं महाराज, ऐसा नहीं है। बात यह है कि मैं अपवित्र हो गया हूँ। आपके अन्दर भी क्रोध का एक चाण्डाल बैठा है। उसने मुझे छू लिया है।”
साधु शरम से पानी-पानी हो गये। उनसे कोई उत्तर देते नहीं बना।
बच्चो! चाण्डाल-जाति को अपवित्र मानने के दिन बीत चुके हैं; लेकिन क्रोध सचमुच बहुत अपवित्र होता है और उससे दूर रहने में ही हमारी भलाई है। इसलिए क्रोध को चाण्डाल नहीं, महाचाण्डाल ही कहना चाहिए।
क्या तुम्हें कभी क्रोध आता है? अच्छा, अब कभी क्रोध आये तो सोचना—अगर मैं क्रोधित न होता तो क्या हानि होती?
तुम्हें यह समझ में आयेगा कि तुम्हारी रत्ती-भर भी हानि नहीं होती। हाँ, क्रोध करने से हानि अवश्य होती है। तुम्हारी अपनी हँसी-खुशी छिन जाती है और दूसरों की भी। और हँसी-खुशी से जितना काम तुम कर लेते हो या दूसरों के करा लेते हो, उसका आधा काम भी तुम क्रोधित हो कर न स्वयं कर सकते हो और न दूसरों से करा सकते हो।
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