आम्हा धन कण घरी घरी – Tukaram aur Dhan ki Kahani
सन्त तुकाराम (Tukaram) किसी से कोई कीमती भेंट स्वीकार नहीं करते थे। उनके पास सन्तोष का धन था। जैसी भी परिस्थिति होती, उस पर सन्तोष कर लेते थे। कभी दुःखी न होते थे।
एक बार तुकाराम जी कहीं बाहर गये हुए थे। शिवाजी महाराज ने उनकी कुटिया में कुछ क़ीमती बरतन भिजवाये। तुकाराम जी की पत्नी ने वे बरतन रख लिये। जब वह लौट कर आये, तब पत्नी ने उन्हें बताया कि शिवाजी महाराज ने बहत से अच्छे बरतन भिजवाये थे, उन बरतनों को रख लिया है और मिट्टी के पुराने बरतन बाँट दिये हैं।
तुकाराम जी ने कहा- “यह ठीक किया। अब नये बरतनों को भी बाँट दो।”
और, तुरन्त ही उन्होंने बरतनों की टोकरी शिर पर रखी और उन्हें न चल दिये। बाँट कर लौट रहे थे तो बहत प्रसन्न थे। खुशी के मारे क पर नहीं पड़ रहे थे धरती पर। गाते जा रहे थे—’आम्हा धन कण घरी-घरी।”
Tukaram aur Dhan ki Kahani
गीत की इस पंक्ति का भावार्थ है—हमारा धन-धान्य घर-घर भरा हुआ है। सारे घर-परिवार अपने ही तो हैं। वाह, कितनी प्रसन्नता की बात.
यह बात घर-घर फैल गयी कि उन्होंने घर के सारे बरतन बाँट दिये हैं। तब गाँव वालों ने उन्हें मिट्टी के नये बरतन दिये।
अपनी चीज़ सबकी है। वह सबके काम आ जाये, तो कितनी अच्छी बात! यह था तुकाराम जी के सोचने का ढङ्ग। बच्चो! तुम भी इसी तरह से सोचने और फिर इसके अनुसार व्यवहार करने का अभ्यास डालो। और फिर तुकाराम जी की तरह प्रसन्न होओ, जिस दिन तुम्हारी चीज़ दूसरों के काम आ जाये।
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